Monday 2 October 2017

खोज अभी जारी है .....।

आज बहुत दिन बाद मुखातिब हुआ हूँ। आप लोग यह मत समझना की मैंने भगवान का चिंतन करना छोड़ दिया है या अब मुझे यह जानने में कोई दिलचस्पी नही है कि भगवान कौन है ? मेरा चिंतन अभी जारी है और खोज भी जारी है ..

इन दिनों मुझे यह आभास हो रहा है कि जब हम किसी बड़े व्यक्ति से मिलने जाते है तो खुद को पूरा तैयार करते है या फिर जैसे है यानि दुखी परेशान जैसी भी हालात में हम उनसे मिलने पहुच जाते है । अब मैं तो उस परमसत्ता की खोज में निकला हूँ जिससे मिलने के बाद लोग कहते है किसी और से मिलने की जरुरत ही नही है । इसलीये यह अहसास हो रहा है कि मुझे प्रकृति तैयार कर रही है । मुझे लगता है मैं अभी मिलने के काबिल नही हूँ ।इसलिए मैंने इतने दिन तक आप लोगो से मेरा कोई भी अनुभव शेयर नही किया ।

अब लग रहा है कि कुछ बात तो जरूर है जो मुझे उस सत्ता के नजदीक जाने से रोक रही है । कहते है भगवन किसी को ऐसे ही नही मिलते है बहुत पापड़ बेलने पड़ते है या यु कहे बहुत तपस्या करनी पड़ती है । अब यह तपस्या क्या है और कैसे की जाती है इसकी जानकारी मिलने में ही समय लग गया । बात तपस्या की है तो मुझे लगता है भगवान् से मिलने में सबसे से ज्यादा बाधक काम क्रोध लोभ मोह आदि है और ये सब उस परम सत्ता की ही माया है ऐसा लोग और अनुभवी लोग कहते है इन अनुभवी लोगो को ही कुछ लोग गुरू कहते है और कोई इन्हें प्रेरक कहता है ।

मैं भी आजकल मोह माया में जकड गया हूँ। मुझे भी मेरे अंदर एक अलग ही अहसास होने लगा है कि मेरी भी कुछ जिम्मेदारिया है जिन्हें मुझे निभानी है ।

लेकिन जब ध्यान में बैठता हु और चिंतन करता हूँ तो पता लगने लगता है ये सब पालन पौषण करना तो प्रकृति का ही अटल कार्य है किसको क्या खिलाना है और किसे भूखा सुलाना है । सब उसके हाथ में है यह सब जब जानकारी हो गई तो फिर बाकी क्या रह गया । यही जानकारी होना तो परम सत्ता को स्वीकारना है और जब स्वीकार लिया तो खोज तो पूरी हो गई । अब क्या बाकी रह गया ।

लेकिन ज्योही ध्यान भंग होता है तो सभी कुछ उल्टा पुल्टा नजर आता है । ऐसा कुछ भी नही लगता कि अपने आप हो रहा है लगता है यदि सब कुछ अपने आप हो रहा है तो यह सब झंझट किस बात का है । किसी को हरि पद मांगने पर वानर रूप मिलता है और किसी को वानर काया में भी हरि मिल जाते है ।

भगवान को पाने के चक्कर में बहुत लोग घनचक्कर हो गए है अब किसी पथ पर चलते है तो तरह तरह की परेशानिया आती है और कही कही पर आनंद की अनभूति भी होती है । यह भी एक रास्ता है जिस पर मैं और आप लोग चल रहे है रास्ता जितना रोमांचकारी होता है उतना ही ज्यादा आनन्द आता है ।

मेरे परमपूज्य गुरुदेव श्री मालचंद जी कौशिक ने मुझे एक बार बताया था कि " जब भगवान को खोजने की राह पर चलने लगोगे तो प्रारम्भ में बहुत ही आनन्द आयेगा आगे चलकर थोड़ा थोड़ा कष्ट (काम क्रोध, लोभ , मोह ) का आभास होगा , उसके बाद यदि कष्ट को पार नही कर पाए तो रास्ता भटक जाओगे और यदि कष्ट को पार कर लिया तो अहंकार आ जायेगा ।

जीवन में अहंकार प्राकृत होता है लेकिन कामादि दुुर्गुणो को जीतने के बाद आने वाला अहंकार मायावी होता है । उस माया जाल में फंसते ही सब नष्ट हो जाएगा । आगे बढ़ते रहना । फिर दुःख दरिद्रता का सामना भी करना पड़ सकता है । धन लक्ष्मी का भी जीवन में प्रभाव देखने को मिल सकता है । वैभव कीर्ति सब इस मार्ग में आएंगे । घबराना नही, लिप्त मत होना, फिर पार पा जायेगा  " इति गुरु वाक्यम ।

अब मैं तो गुरु जी की बातों को सच मानता हूं और अनुभव भी कर रहा हूँ । अभी तो मोह माया तक पंहुचा हूँ । आगे बढ़ता जाऊंगा और कभी न कभी तो खोज ही लूंगा क्योकि खोज अभी जारी है .....।

खोज अभी जारी है .....।

आज बहुत दिन बाद मुखातिब हुआ हूँ। आप लोग यह मत समझना की मैंने भगवान का चिंतन करना छोड़ दिया है या अब मुझे यह जानने में कोई दिलचस्पी नही है कि भगवान कौन है ? मेरा चिंतन अभी जारी है और खोज भी जारी है ..

इन दिनों मुझे यह आभास हो रहा है कि जब हम किसी बड़े व्यक्ति से मिलने जाते है तो खुद को पूरा तैयार करते है या फिर जैसे है यानि दुखी परेशान जैसी भी हालात में हम उनसे मिलने पहुच जाते है । अब मैं तो उस परमसत्ता की खोज में निकला हूँ जिससे मिलने के बाद लोग कहते है किसी और से मिलने की जरुरत ही नही है । इसलीये यह अहसास हो रहा है कि मुझे प्रकृति तैयार कर रही है । मुझे लगता है मैं अभी मिलने के काबिल नही हूँ ।इसलिए मैंने इतने दिन तक आप लोगो से मेरा कोई भी अनुभव शेयर नही किया ।

अब लग रहा है कि कुछ बात तो जरूर है जो मुझे उस सत्ता के नजदीक जाने से रोक रही है । कहते है भगवन किसी को ऐसे ही नही मिलते है बहुत पापड़ बेलने पड़ते है या यु कहे बहुत तपस्या करनी पड़ती है । अब यह तपस्या क्या है और कैसे की जाती है इसकी जानकारी मिलने में ही समय लग गया । बात तपस्या की है तो मुझे लगता है भगवान् से मिलने में सबसे से ज्यादा बाधक काम क्रोध लोभ मोह आदि है और ये सब उस परम सत्ता की ही माया है ऐसा लोग और अनुभवी लोग कहते है इन अनुभवी लोगो को ही कुछ लोग गुरू कहते है और कोई इन्हें प्रेरक कहता है ।

मैं भी आजकल मोह माया में जकड गया हूँ। मुझे भी मेरे अंदर एक अलग ही अहसास होने लगा है कि मेरी भी कुछ जिम्मेदारिया है जिन्हें मुझे निभानी है ।

लेकिन जब ध्यान में बैठता हु और चिंतन करता हूँ तो पता लगने लगता है ये सब पालन पौषण करना तो प्रकृति का ही अटल कार्य है किसको क्या खिलाना है और किसे भूखा सुलाना है । सब उसके हाथ में है यह सब जब जानकारी हो गई तो फिर बाकी क्या रह गया । यही जानकारी होना तो परम सत्ता को स्वीकारना है और जब स्वीकार लिया तो खोज तो पूरी हो गई । अब क्या बाकी रह गया ।

लेकिन ज्योही ध्यान भंग होता है तो सभी कुछ उल्टा पुल्टा नजर आता है । ऐसा कुछ भी नही लगता कि अपने आप हो रहा है लगता है यदि सब कुछ अपने आप हो रहा है तो यह सब झंझट किस बात का है । किसी को हरि पद मांगने पर वानर रूप मिलता है और किसी को वानर काया में भी हरि मिल जाते है ।

भगवान को पाने के चक्कर में बहुत लोग घनचक्कर हो गए है अब किसी पथ पर चलते है तो तरह तरह की परेशानिया आती है और कही कही पर आनंद की अनभूति भी होती है । यह भी एक रास्ता है जिस पर मैं और आप लोग चल रहे है रास्ता जितना रोमांचकारी होता है उतना ही ज्यादा आनन्द आता है ।

मेरे परमपूज्य गुरुदेव श्री मालचंद जी कौशिक ने मुझे एक बार बताया था कि " जब भगवान को खोजने की राह पर चलने लगोगे तो प्रारम्भ में बहुत ही आनन्द आयेगा आगे चलकर थोड़ा थोड़ा कष्ट (काम क्रोध, लोभ , मोह ) का आभास होगा , उसके बाद यदि कष्ट को पार नही कर पाए तो रास्ता भटक जाओगे और यदि कष्ट को पार कर लिया तो अहंकार आ जायेगा ।

जीवन में अहंकार प्राकृत होता है लेकिन कामादि दुुर्गुणो को जीतने के बाद आने वाला अहंकार मायावी होता है । उस माया जाल में फंसते ही सब नष्ट हो जाएगा । आगे बढ़ते रहना । फिर दुःख दरिद्रता का सामना भी करना पड़ सकता है । धन लक्ष्मी का भी जीवन में प्रभाव देखने को मिल सकता है । वैभव कीर्ति सब इस मार्ग में आएंगे । घबराना नही, लिप्त मत होना, फिर पार पा जायेगा  " इति गुरु वाक्यम ।

अब मैं तो गुरु जी की बातों को सच मानता हूं और अनुभव भी कर रहा हूँ । अभी तो मोह माया तक पंहुचा हूँ । आगे बढ़ता जाऊंगा और कभी न कभी तो खोज ही लूंगा क्योकि खोज अभी जारी है .....।

Tuesday 6 December 2016

आत्मा का रिश्ता

मेरे मन में नित्य चिंतन मनन चलता रहता है। मैं रोजाना  ही भगवान का चिंतन करता हूँ लेकिन मुझे भगवान के बजाय मेरा ही चिंतन होने लगता है। मेरे बारे में ही विचार आने लगते है । मैं भगवान की खोज करने चला हूँ और मुझे लगता है मुझे मेरी ही जानकारी होती जा रही है । आज मेरे चिंतन में रिश्तों का सम्बन्ध क्या है । रिश्ते क्या है । रिश्तो का किससे सम्बन्ध है । ये विचार जैहन में गूंज रहे है ।

रिस्ते शरीर के भी होते है । आत्मा के भी होते है । और मन भी रिश्ते बनाता हैं। इन रिश्तों के भाव ,विचार और व्यवहार अलग अलग होते है।

ये जितने भी दिखने वाले रिश्ते है ये सभी रिश्ते सबसे अलग होते है । यह सब इस शरीर के रिश्ते है । यह शरीर ही अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए तरह तरह के रिश्ते बनाता है । मन और आत्मा रिश्ते बनाने में इतना महत्त्व नही देते है ।

जब आत्मा का रिश्ता होता है वह स्वभाविक होता है । उसमें छल प्रपंच नही होता । तुलसीदास जी लिखते है "छल प्रपंच मोहे नही भावा.." यह आत्मा ही तो है जो परमात्मा का अंश है। इसलिए परमात्मा के सामान आत्मा को भी छल प्रपंच पसंद नही है ।

मन के रिश्ते तो दोनों प्रकार से बन जाते है । यदि मन शरीर और इंद्रियो के वशीभूत होकर रिस्ते बनाता है । तो यह विकार युक्त होते है । स्वार्थ से पूर्ण होते है। काम,क्रोध,लोभ,मोह,से सने हुए होते है।

मन की चंचलता को वश में करके हमें इसे आत्मा से जोड़ दे तो यह एक योग बन जाता है । योग से हम आत्मा और मन की एक ज्योत जला सकते है । मन को बार बार आत्मा की ओर ले जाना ही अपना सुधार है ।

मैं रिस्ते बनाने के लिए मन को शरीर की बजाय आत्मा की ओर ले जाना चाहता हूँ। लेकिन रिस्ते बनाना और उन्हें निभाना, तथा मन को आत्मा की ओर ले जाना दोनों काम ही बहुत कठिन है ।

रिस्ते मतलब माता पिता , भाई बहिन, सखा सम्बन्धी, पति पत्नी, पुत्र पुत्री , ये सब कही ना कही कठिनता पैदा करते है । कई बार इन रिस्तो के बंधन में मनुष्य इतना भयंकर फंस जाता है कि क्या करे कुछ सूझता नहीं है । मेरे साथ कई बार ऐसा हो जाता है कि एक तरफ सगे सम्बन्धी होते है और दूसरी तरफ पत्नी और बच्चे, कई बार किसी लोभ में फंसा होता हूँ और रिस्तो को निभाने का जटिल काम आ जाता है । एक बार तो ऐसा हुआ क़ि माँ बीमार, एकदम बेहोशी की हालत और मुझे बाहर जाना , बहुत ही जरूरी, नोकरी का दायित्व और जिम्मेदारी का बोझ भी अब क्या करूँ , बहुत ही मुश्किल घडी भयंकर धर्म संकट में ये निर्णय लेना पड़ा क़ि माँ को थोड़ा होश आने के बाद, कुछ तबियत ठीक होने के बाद  में छोटे भाई के सहारे छोड़ कर जाना पड़ा । बहुत ही कठिन परिस्थिति हो जाती है जब रिस्ते निभाने की बारी आती है । कई बार तो कुछ लोग कहने लगते है कि तेरा माँ बाप के प्रति कर्तव्य नही है क्या ? मैं उन लोगो से कह देता हूं कि यार कर्तव्य ही तो निभा रहा हूँ । उन लोगो ने मुझे पढ़ाया और मै अब मेरे बच्चो को पढ़ा रहा हूँ। लेकिन यह नही चलता । ये गलत है । रिश्ता निभाना बहुत ही जरुरी है ।

यह शरीर भी इस संसार में स्त्री और पुरूष में बंटा हुआ है । जबकि शास्त्रो में आत्मा को ही पुरूष कहा गया है 'पुरः शरीरे शेती पुरुषः' जो इस नगर रूपी शरीर में रहती है वह पुरुष(आत्मा) है । स्त्री और पुरुष में यह एक ही आत्मा रहती है फिर भी लोग यह कहते रहते है कि - "बेटे से ज्यादा बेटियां रिस्ते निभाती है ।" लेकिन यह सब मन का वहम है। रिस्ते निभाना मन और आत्मा का काम है यह शरीर तो रिस्तो को लाभ के लिए  ही देखता है । जब लाभ ख़त्म तो रिस्ते भी ख़त्म । जो माँ बचपन में बहुत प्यारी लगती वह बूढ़ी होने पर उतनी प्यारी नही लगती । जो पुत्र सही मार्ग पर चले और अच्छी कमाई करता हो और आर्थिक सहायता भी करता हो , वो माँ को जितना प्यारा लगता है । उतना  प्यारा मदकमाऊ और बिगड़ैल बच्चा प्यारा नही होता है। रिस्तो में दरार आते कई बार देखा गया है ।

ये सब शरीर के रिस्ते है । आत्मा का रिश्ता हमेशा के लिए होता है । उस रिस्ते में कोई दिखावा ,कोई छल प्रपंच नही होता । वह रिस्ता जब मन आत्मा से मिल जाता है तब बनता है और फिर रिस्ता निभता ही चला जाता है । सब कर्तव्यों का पालन होता ही जाता है । जैसे राधा का श्याम से मीरा का घनश्याम से । मेरा आप लोगो से ...... आत्मा का रिश्ता ।

Tuesday 22 November 2016

अपने आपको बदलना बहुत मुश्किल है ।

आज फिर से चिंतन मनन कर रहा हूँ। भगवान से मिलने की यात्रा में आप मेरे साथ चल रहे हैं। विस्वास हो तो भगवान अवश्य ही मिलते है । आप हम सब यदि विश्वास के साथ आगे बढ़ेंगे तो अवश्य ही मुलाक़ात हो जायेगी। अब सोचने वाली बात तो यह है कि यह विश्वास कैसे पैदा करे । ऐसा क्या करे क़ि हमें खुद पर भरोसा होने लगे । क्या अपने कर्मो को बदलने से हम खुद पर और परमात्मा पर विशवास कर सकते है ।

प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि सामने वाला गलत है । तथा गलत काम कर रहा है। लेकिन यह कभी भी जानने की कोशिश नही करता तथा न ही  जान पाता है कि खुद कितना गलत है । और कितने गलत काम कर रहा है । मुझे रोजाना कोई ना कोई ज्ञान की बात बता ही देते है। मरीजो से मेरा काम पड़ता है तो उनके साथ आने वाले लोगो से भी पाला पड़ जाता है । साथ आने वाले विद्वान तथा महान पंडित लोग होते है कुछ न कुछ ज्ञान की उल्टी मुझ पर कर ही जाते है । मुझे सीख देने वाले कभी भी आत्म चिंतन नही करते है। बस आज की यही नीति रीति हो गई है कि अपना ज्ञान किसी न किसी को देते रहो और खुद का चिंतन मत करो ।

जहाँ तक मेरा मानना है कि जितना मनुष्य अपने आप को जानता है उतना दूसरा उसके बारे में नही जान सकता । मैं मेरी पत्नी से अक्सर कहता रहता हूँ कि तुम मेरे बारे में उतना ही जानती हो जितना मै तुम्हे बताता हूँ।

धारणा को हम जैसा चाहे वैसा बना सकते है। हम खुद से संचालित नहीं होते है हमे तो लोग संचालित कर रहे है । किसी ने कह दिया क़ि आप बहुत सुंदर है तो हम बहुत प्रसन्न हो जाते है , किसी ने कह दिया आप बड़े बदसूरत हो, तो हमे गुस्सा आ गया । हम ये जानते ही नही है कि हम सुंदर है या नही है । आजकल तो यह ट्रेड बन गया है कि जो बात टेली विजन में आती है वही सही लगने लगती है। लोग दूसरों को सुधारने का प्रयास तो करते है लेकिन खुद को सुधारने की कोशिश कभी नही करते है । हम तो सुधरेंगे नहीं और ज़माने को सुधार कर समाज सुधारने चले  है।

अपने अंदर बदलाव लाना पहला काम है। जबकि हमने इसे आखिरी काम बना लिया है । जब सब बदल जायेंगे , सब में बदलाव आएगा तो मेरे अंदर भी बदलाव तो आ ही जायेगा । इस प्रकार की सोच हो गई है। लेकिन यह सोच सही नही है। हमारे पूज्य लोग यह बार बार कहते है कि हम सुधरेंगे तो युग सुधरेगा, हम बदलेंगे तो युग बदलेगा। लेकिन हमारे अंदर यह बात नही घुसती। हमारे कुछ भी समझ में नही आता है । सभी लोग सत्संग कर करके सबको सुधारना चाहते है। जबकि बात है खुद को सुधारने की । हमारे अंदर बदलाव आ जाये तो सब कुछ बदल जायेगा ।

मै  रोज चिंतन करता हूँ, बदलना चाहता हूँ, लेकिन क्या मैं बदल पा रहा हूँ, क्या मैं कुछ बदल गया हूँ। नहीं अभी तक मुझमे कोई बदलाव नही आया है । खुद को बदलना बहुत ही कठिन काम है । किसी काम को बिगाड़ने और किसी व्यक्ति को बिगड़ने में बहुत कम समय लगता है और बहुत ही आसान भी होता है । लेकिन खुद को सुधारना, सही मार्ग पर चलना , ये काम बहुत ही कठिन है । लेकिन जब इस मार्ग पर चल पड़े है तो सुधार तो करके ही रहूँगा । अपने आप में बदलाव तो लाकर ही रहूँगा।

अब सन्त जनो की वाणी सुन ली है संत कहते है अपना सुधार करलो, अपने आप को जान लो , अपने अंदर के भगवान् को पहचान लो , तो फिर आपको किसी के आगे हाथ फैलाने की तथा किसी को मनाने की जरुरत नही पड़ेगी ।  फिर लोग भी अपने आप आपके पास आएंगे और लोगो में ही तो भगवान बसते है । फिर भगवान् भी खुद ही चले आएंगे खोजते हुए ।