Tuesday 6 December 2016

आत्मा का रिश्ता

मेरे मन में नित्य चिंतन मनन चलता रहता है। मैं रोजाना  ही भगवान का चिंतन करता हूँ लेकिन मुझे भगवान के बजाय मेरा ही चिंतन होने लगता है। मेरे बारे में ही विचार आने लगते है । मैं भगवान की खोज करने चला हूँ और मुझे लगता है मुझे मेरी ही जानकारी होती जा रही है । आज मेरे चिंतन में रिश्तों का सम्बन्ध क्या है । रिश्ते क्या है । रिश्तो का किससे सम्बन्ध है । ये विचार जैहन में गूंज रहे है ।

रिस्ते शरीर के भी होते है । आत्मा के भी होते है । और मन भी रिश्ते बनाता हैं। इन रिश्तों के भाव ,विचार और व्यवहार अलग अलग होते है।

ये जितने भी दिखने वाले रिश्ते है ये सभी रिश्ते सबसे अलग होते है । यह सब इस शरीर के रिश्ते है । यह शरीर ही अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए तरह तरह के रिश्ते बनाता है । मन और आत्मा रिश्ते बनाने में इतना महत्त्व नही देते है ।

जब आत्मा का रिश्ता होता है वह स्वभाविक होता है । उसमें छल प्रपंच नही होता । तुलसीदास जी लिखते है "छल प्रपंच मोहे नही भावा.." यह आत्मा ही तो है जो परमात्मा का अंश है। इसलिए परमात्मा के सामान आत्मा को भी छल प्रपंच पसंद नही है ।

मन के रिश्ते तो दोनों प्रकार से बन जाते है । यदि मन शरीर और इंद्रियो के वशीभूत होकर रिस्ते बनाता है । तो यह विकार युक्त होते है । स्वार्थ से पूर्ण होते है। काम,क्रोध,लोभ,मोह,से सने हुए होते है।

मन की चंचलता को वश में करके हमें इसे आत्मा से जोड़ दे तो यह एक योग बन जाता है । योग से हम आत्मा और मन की एक ज्योत जला सकते है । मन को बार बार आत्मा की ओर ले जाना ही अपना सुधार है ।

मैं रिस्ते बनाने के लिए मन को शरीर की बजाय आत्मा की ओर ले जाना चाहता हूँ। लेकिन रिस्ते बनाना और उन्हें निभाना, तथा मन को आत्मा की ओर ले जाना दोनों काम ही बहुत कठिन है ।

रिस्ते मतलब माता पिता , भाई बहिन, सखा सम्बन्धी, पति पत्नी, पुत्र पुत्री , ये सब कही ना कही कठिनता पैदा करते है । कई बार इन रिस्तो के बंधन में मनुष्य इतना भयंकर फंस जाता है कि क्या करे कुछ सूझता नहीं है । मेरे साथ कई बार ऐसा हो जाता है कि एक तरफ सगे सम्बन्धी होते है और दूसरी तरफ पत्नी और बच्चे, कई बार किसी लोभ में फंसा होता हूँ और रिस्तो को निभाने का जटिल काम आ जाता है । एक बार तो ऐसा हुआ क़ि माँ बीमार, एकदम बेहोशी की हालत और मुझे बाहर जाना , बहुत ही जरूरी, नोकरी का दायित्व और जिम्मेदारी का बोझ भी अब क्या करूँ , बहुत ही मुश्किल घडी भयंकर धर्म संकट में ये निर्णय लेना पड़ा क़ि माँ को थोड़ा होश आने के बाद, कुछ तबियत ठीक होने के बाद  में छोटे भाई के सहारे छोड़ कर जाना पड़ा । बहुत ही कठिन परिस्थिति हो जाती है जब रिस्ते निभाने की बारी आती है । कई बार तो कुछ लोग कहने लगते है कि तेरा माँ बाप के प्रति कर्तव्य नही है क्या ? मैं उन लोगो से कह देता हूं कि यार कर्तव्य ही तो निभा रहा हूँ । उन लोगो ने मुझे पढ़ाया और मै अब मेरे बच्चो को पढ़ा रहा हूँ। लेकिन यह नही चलता । ये गलत है । रिश्ता निभाना बहुत ही जरुरी है ।

यह शरीर भी इस संसार में स्त्री और पुरूष में बंटा हुआ है । जबकि शास्त्रो में आत्मा को ही पुरूष कहा गया है 'पुरः शरीरे शेती पुरुषः' जो इस नगर रूपी शरीर में रहती है वह पुरुष(आत्मा) है । स्त्री और पुरुष में यह एक ही आत्मा रहती है फिर भी लोग यह कहते रहते है कि - "बेटे से ज्यादा बेटियां रिस्ते निभाती है ।" लेकिन यह सब मन का वहम है। रिस्ते निभाना मन और आत्मा का काम है यह शरीर तो रिस्तो को लाभ के लिए  ही देखता है । जब लाभ ख़त्म तो रिस्ते भी ख़त्म । जो माँ बचपन में बहुत प्यारी लगती वह बूढ़ी होने पर उतनी प्यारी नही लगती । जो पुत्र सही मार्ग पर चले और अच्छी कमाई करता हो और आर्थिक सहायता भी करता हो , वो माँ को जितना प्यारा लगता है । उतना  प्यारा मदकमाऊ और बिगड़ैल बच्चा प्यारा नही होता है। रिस्तो में दरार आते कई बार देखा गया है ।

ये सब शरीर के रिस्ते है । आत्मा का रिश्ता हमेशा के लिए होता है । उस रिस्ते में कोई दिखावा ,कोई छल प्रपंच नही होता । वह रिस्ता जब मन आत्मा से मिल जाता है तब बनता है और फिर रिस्ता निभता ही चला जाता है । सब कर्तव्यों का पालन होता ही जाता है । जैसे राधा का श्याम से मीरा का घनश्याम से । मेरा आप लोगो से ...... आत्मा का रिश्ता ।

Tuesday 22 November 2016

अपने आपको बदलना बहुत मुश्किल है ।

आज फिर से चिंतन मनन कर रहा हूँ। भगवान से मिलने की यात्रा में आप मेरे साथ चल रहे हैं। विस्वास हो तो भगवान अवश्य ही मिलते है । आप हम सब यदि विश्वास के साथ आगे बढ़ेंगे तो अवश्य ही मुलाक़ात हो जायेगी। अब सोचने वाली बात तो यह है कि यह विश्वास कैसे पैदा करे । ऐसा क्या करे क़ि हमें खुद पर भरोसा होने लगे । क्या अपने कर्मो को बदलने से हम खुद पर और परमात्मा पर विशवास कर सकते है ।

प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि सामने वाला गलत है । तथा गलत काम कर रहा है। लेकिन यह कभी भी जानने की कोशिश नही करता तथा न ही  जान पाता है कि खुद कितना गलत है । और कितने गलत काम कर रहा है । मुझे रोजाना कोई ना कोई ज्ञान की बात बता ही देते है। मरीजो से मेरा काम पड़ता है तो उनके साथ आने वाले लोगो से भी पाला पड़ जाता है । साथ आने वाले विद्वान तथा महान पंडित लोग होते है कुछ न कुछ ज्ञान की उल्टी मुझ पर कर ही जाते है । मुझे सीख देने वाले कभी भी आत्म चिंतन नही करते है। बस आज की यही नीति रीति हो गई है कि अपना ज्ञान किसी न किसी को देते रहो और खुद का चिंतन मत करो ।

जहाँ तक मेरा मानना है कि जितना मनुष्य अपने आप को जानता है उतना दूसरा उसके बारे में नही जान सकता । मैं मेरी पत्नी से अक्सर कहता रहता हूँ कि तुम मेरे बारे में उतना ही जानती हो जितना मै तुम्हे बताता हूँ।

धारणा को हम जैसा चाहे वैसा बना सकते है। हम खुद से संचालित नहीं होते है हमे तो लोग संचालित कर रहे है । किसी ने कह दिया क़ि आप बहुत सुंदर है तो हम बहुत प्रसन्न हो जाते है , किसी ने कह दिया आप बड़े बदसूरत हो, तो हमे गुस्सा आ गया । हम ये जानते ही नही है कि हम सुंदर है या नही है । आजकल तो यह ट्रेड बन गया है कि जो बात टेली विजन में आती है वही सही लगने लगती है। लोग दूसरों को सुधारने का प्रयास तो करते है लेकिन खुद को सुधारने की कोशिश कभी नही करते है । हम तो सुधरेंगे नहीं और ज़माने को सुधार कर समाज सुधारने चले  है।

अपने अंदर बदलाव लाना पहला काम है। जबकि हमने इसे आखिरी काम बना लिया है । जब सब बदल जायेंगे , सब में बदलाव आएगा तो मेरे अंदर भी बदलाव तो आ ही जायेगा । इस प्रकार की सोच हो गई है। लेकिन यह सोच सही नही है। हमारे पूज्य लोग यह बार बार कहते है कि हम सुधरेंगे तो युग सुधरेगा, हम बदलेंगे तो युग बदलेगा। लेकिन हमारे अंदर यह बात नही घुसती। हमारे कुछ भी समझ में नही आता है । सभी लोग सत्संग कर करके सबको सुधारना चाहते है। जबकि बात है खुद को सुधारने की । हमारे अंदर बदलाव आ जाये तो सब कुछ बदल जायेगा ।

मै  रोज चिंतन करता हूँ, बदलना चाहता हूँ, लेकिन क्या मैं बदल पा रहा हूँ, क्या मैं कुछ बदल गया हूँ। नहीं अभी तक मुझमे कोई बदलाव नही आया है । खुद को बदलना बहुत ही कठिन काम है । किसी काम को बिगाड़ने और किसी व्यक्ति को बिगड़ने में बहुत कम समय लगता है और बहुत ही आसान भी होता है । लेकिन खुद को सुधारना, सही मार्ग पर चलना , ये काम बहुत ही कठिन है । लेकिन जब इस मार्ग पर चल पड़े है तो सुधार तो करके ही रहूँगा । अपने आप में बदलाव तो लाकर ही रहूँगा।

अब सन्त जनो की वाणी सुन ली है संत कहते है अपना सुधार करलो, अपने आप को जान लो , अपने अंदर के भगवान् को पहचान लो , तो फिर आपको किसी के आगे हाथ फैलाने की तथा किसी को मनाने की जरुरत नही पड़ेगी ।  फिर लोग भी अपने आप आपके पास आएंगे और लोगो में ही तो भगवान बसते है । फिर भगवान् भी खुद ही चले आएंगे खोजते हुए ।

Sunday 20 November 2016

परिवर्तन

जो कर्म हम रोजाना करते है, उसका फल हमें अवश्य ही मिलता है । मैं जब भी इस बात पर विचार करता हूँ तो परम पूज्य गुरुदेव की कही हुई बात याद आ जाती है । उन्होंने कहा था -  बेटा ! कर्म फल को तो भोगना ही  पडेगा जब हम कर्म समाप्ति कर लेते है अर्थात जब अंत समय आ जाता है तो कर्मो की फ़ाइल खुल जाती हैं। जितना जिसका लेखा जोखा होता है उसे उतना फल मिल जाता है । मैं ने मेरे जीवन में दो वर्ष तक पाप किये है और मुझे पूरा आभाष है मैं दो वर्ष तक इस पाप को भोगने के बाद ही इस जीवन से मुक्त हो सकूँगा । और यह सच भी हुआ । गुरुदेव ने यह बात मुझे 9 अगस्त 2004 में कही थी जब उनका पैर फेक्चर हो गया था और ठीक दो साल बाद 23 अगस्त 2006 को गुरूदेव देव लोक को चले गए। इस समयावधि में गुरुदेव ने बहुत ही रोगों से तथा कठिनाइयों से दो दो हाथ किये थे । हम सब उनकी सेवा में तत्पर रहते थे तो वे कहते ये मेरे पुण्यो का फल भी भगवान की कृपा से साथ साथ मिल रहा है ।

आज एक वृद्ध व्यक्ति मिला उसने भी जब यही बात कही कि - मुझे आभास हो रहा है कि मुझे सब मेरे कर्मो का फल मिल रहा है । मैं इस पर विचार करने को विवश हो गया ।

जब हमें आभास हो जाता है कि जो कर्म हम कर रहे है उनका फल हमें अवश्य ही भोगना पड़ेगा , तो फिर क्यों न हम अपने आप में परिवर्तन लाकर कर्म को अच्छा ही बनाये ।

अपने आप में परिवर्तन लाना  बहुत ही कठिन काम है। हमारा शरीर दस इंद्रियों के जाल में  फंसा हुआ है । ऊपर से यह एक मन और है जो इन सब का राजा है । हम जो चाहे वह हमें करने नही देता उल्टा अपनी मर्जी से हमें  चलाता है । बहुत चिंतन मनन और ध्यान करने के बाद ही पता चला कि इस संकट को सिर्फ गुरू ही दूर कर सकते है ।

जब तक खुद में परिवर्तन नही आएगा तब तक भगवान् से मिलना नही हो सकता यह कर्म की गति आगे बढ़ने से अवश्य ही रोकती है । कर्मफल से पार पाने का एक ही रास्ता है गुरू के प्रवचन ।

गुरूदेव के दिए गए प्रवचन को याद किया उन्होंने कहा था - बेटा वेद ! विचार और विकार दोनों मन में ही पैदा होते है । जो अच्छे भाव है वे एक विचार है । और जो बुरे भाव है वे विकार है। यदि मनुष्य संकल्प के साथ विचार को सृदृढ़ किया जाये तो मन विकारो से मुक्त हो जाता है । मैंने आज यह संकल्प लिया है कि मैं अपने आप में परिवर्तन लाऊंगा और अपने विचारों को अच्छे काम में लगाने के लिए सुदृढ़ करूँगा।

आप भी मेरी इस यात्रा के सहयात्री बने  रहना । मैं आप लोगो से मेरे अनुभव शेयर करूंगा । और हम सब अच्छे अच्छे कर्म करके निश्चित रूप से परमात्मा को प्राप्त कर लेंगे ।

Wednesday 2 November 2016

कोई है जो रोकता है ?

हाँ कोई है जो हमें परमात्मा से मिलने से रोकता है मै मिलन करना चाहता हूँ। लेकिन बार बार कोई रुकावट आती है और मिलन नही हो पाता है ।
कौन है जो मेरे पास आकर मुझे बहकाता है । कभी मुझे लोभ में डाल देता है कभी माया में फाँस देता है आजकल मोह फाँस में डाल रखा है तुलसीदास जी कहते है "मोह सकल व्याधिन्न कर मुला" 
मैं उसके पास जाना चाहता हूँ। तो कोई बंधन मुझे जकड़ लेता है । मै बार बार इस दलदल में फ़स रहा हु लेकिन कब तक फसता रहूँगा यह कोई नही जानता । जब कोई भी प्रकार का फाँस नही आएगा तब शायद मैं मिल ही लूंगा भगवान से ।
लोग कहते है कि जब कोई भगवन की खोज में जाता है  तो उसे एक मायानगरी से गुजारना पड़ता है उस नगरी में भक्त फस भी जाता है और पार भी उतर जाता है । यह नगरी एक भयानक समुद्र से घिरी हुई होती है जिसे संसार सागर कहते है । इस सागर से बहुत कम लोग ही पार उतर पाते है । मैं बहुत कोशिश कर रहा हूँ लेकिन माया नगरी में फॅस ही जाता हूं ।
मुझे इस फाँस से निकलना ही है मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है । जैसे जैसे मैं आगे बढ़ रहा हु मेरा विश्वास भी बढ रहा है । मेरा मनोबल ही मुझे मेरी मंजिल तक मुझे पंहुचा देगा । फिर कोई भी बाधा मुझे रोक नही पायेगी।
अब एक बात सोचने वाली यह है कि सब को पार लगाने वाले ही भगवान है तो फिर रोकते क्यों है । मुझे लगता है कि भगवान के अलावा कोई और है जो यह चाहता ही नही है कि मैं भगवान से मिलु। शायद वह मेरा मन हो सकता है । यह मन की नगरी ही मायानगरी है औऱ यह शरीर ही संसार सागर है । क्योकि मन और शरीर के रिस्तो के लिए मैं इस नगरी में फ़स जाता हूँ लेकिन मैं  लगा हुआ हूं मुझे रोकने वाला क्या कोई है ?

Tuesday 27 September 2016

भगवान को देखने के लिये चाहिये – दिव्य दृष्टि और समर्पण

भगवान को देखने के लिये चाहिये – दिव्य दृष्टि और समर्पण

मै रोजाना भगवान को ढुंढता हुँ लेकिन नही मिले कब मिलेंगे कोई भी यह मुझे बता नही सकता क्योकि भगवान किसी को दिखाई नही देते, क्यो नही दिखाई देते ? क्योकि उनको देखने के लिये एक बहुत ही स्पेसियल नजर की जरूरत है जिसे शास्त्रो मे दिव्य दृष्टि कहा गया है इसलिये ना नौमण तैल होगा और ना राधा नाचेगी,इसीलिये लोग कहते है भगवान के दर्शन दुर्लभ होते है

जब भगवान को देख ही नही सकते तो मिलने से क्या फायदा, साथ ही फालतु मे क्यो भटकना ? तो क्या मुझे भटकना छोड देना चाहिये, लेकिन भटकना छोडने से क्या होगा, यदि भटकने से भगवान ना भी मिले तो क्या ? कुछ ना कुछ तो हासिल जरूर होगाजैसे – कम से कम अपने आप से जानकारी जरूर हो जायेगी, मै कौन हुँ कहा से आया हुँ यह तो जरूर पता चल ही जायेगा, तो चलो भटकना ही शुरू करते है,

मै ने बहुत सी कल्पनाये की है कभी मुझे लगता है कि भगवान हमारे शरीर के किसी अंग का नाम है,जिसके तीन भाग बने हुये है ये ही त्रिलोक है ब्रह्म लोक,बैकुंठ धाम और शिव लोक है  जैसे –हृदय विष्णु भगवान है, मस्तिष्क है वह ब्रह्मा जी है और जिसने काम का नाश किया वह वे शिव भगवान प्रजनन संस्थान के अंग है ,

कभी लगता है यह शरीर ही भगवान है इसी का नाम है भगवान, जैसे – यह मानव शरीर ही भगवान का रूप है क्योकि जब भी भगवान ने अवतार लिया है मनुष्य की आवाज मे ही बाते की है और पुरा जीवन मानव की तरह ही बिताया है ,वराह, नरसिह, मत्स्य, कच्छप आदि अवतारो मे भी भगवान ने मनुष्य की वाणी मे ही बाते की है इसलिये ये मनुष्य ही भगवान हो ऐसा लगता है,

 कभी लगता है शरीर मे जो तरल पदार्थ बह रहा है जैसे- रक्त, जो शुद्ध रक्त धमनियो मे बहता है वह राम है और जो रक्त शिराओ मे बहता है वह लक्ष्मन है, कभी लगता है जो शुद्ध है वह कृष्ण है और जो अशुद्ध है वह बलराम है जिस प्रकार इनकी जोडी बनी हुई उसी प्रकार रक्त की भी एक प्रकार से जोडी बन रही है साथ मे जो लसिकाओ मे बहता है वह जगतजननी हो ऐसा प्रतीत होता है इस प्रकार मुझे लगता है कि तरल पदार्थ ही भगवान है,

कभी लगता है कि यह जो प्रकृति है यही भगवान है यह सब पंच तत्व से बना हुआ है भ से भुमि, ग से गगन,व से वायु, आ से आग, न से नीर यानि जल, बस इन्हे ही भ+ग+व+आ+न कहते है,

कभी लगता है कि भगवान शायद मानव शरीर की आयु अनुसार अवस्था का ही नाम है जैसे जब गर्भधारण होता है वह अवस्था मत्स्य अवतार, जब गर्भ पेट के अंदर विकास करता है तब कच्छप अवतार इस प्रकार ज्यो ज्यो अवस्था बढती जाती है त्यो त्यो भगवानो के अवतार भी होते रहे है यह एक विस्तृत विषय है जिस पर फिर कभी बात करेंगे, आज बात हो रही है कि मुझे अभी तक यह समझ मे नही आ रहा कि भगवान है कौन ? तो मै भगवान को पहचानुंगा कैसे ? और जब पहचान भी जाउंगा तो बिना दिव्य दृष्टी देखुंगा कैसे ? कुल मिलाकर सबसे महत्वपुर्ण यह कि पहले खुद को इस योग्य बनाना पडेगा, खुद मे इतनी पात्रता हो कि जब कभी भगवान मिले तो हम मिलने मे सक्षम तो हो,

ये दिव्य दृष्टि कौन देगा, अर्जुन को किसने दी, साथ ही संजय को किसने दी, धृटराष्ट्र को जब संजय कथा सुना रहा था तब उन्होने भी भगवान के विराट रूप को देख ही लिया था इसलिये सोचने वाली बात यह कि जब तक “दिव्य नजर” नही मिलेगी तब तक भगवान नजर नही आ सकते, लोग कहते है इस संसार मे ये कृपा गुरू कर सकता है जैसे विवेकानंद जी को उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस जी ने माँ काली के दर्शन करवा दिये थे,शिवाजी को उनके गुरू रामदास जी ने विठल भगवान के दर्शन करवा दिये थे,वेदव्यास जी ने संजय को कृष्ण भगवान का विराट रूप दिखा दिया था, अर्जुन को खुद कृष्ण ने ही दिव्य दृष्टि दी थी, 

अब सोचने वाली बात यह है कि श्री रामकृष्ण जी ने सिर्फ विवेकानंद जी को ही क्यो दर्शन करवाये, सभी गुरूओ  की बात करे तो सभी ने एक एक ही को क्यो दर्शन करवाये ? क्या वे ही एक शिष्य थे ? उसके बाद , उसके पहले कोई और शिष्य नही हुये क्या ? क्या कभी किसी और शिष्य ने मांग नही रखी कि मुझे भी भगवान  के दर्शन करवाये, मैं ने ऐसा कभी ना सुना तथा ना ही पढा, ऐसा क्यो हुआ, इसका जबाव है कि विवेकानंद जी जैसे शिष्य गुरू के प्रति समर्पित हो गये थे जो समर्पित हो जाता है वह कृपा का पात्र होता है

अब यह स्पष्टहै कि जब तक समर्पण नही होगा तब तक दिव्यदृष्टि नही मिल सकती, किसी भी लक्ष्य को पाने के लिये समर्पण बहुत ही जरूरी है यदि हम किसी प्रतियोगिता मे भाग ले रहे हो या परिवार का पालन पौषण कर रहे हो सब जगह समर्पण जरूरी है पति का पत्नी के प्रति, पत्नि का पति के प्रति समर्पण जरूरी है यदि समर्पण नही है तो ना हम प्रतियोगिता मे सफल हो सकते ना ही परिवार का पालन कर सकते तथा ना ही पत्नी का प्यार पति को मिल सकता, ना ही पति का प्यार पत्नी को मिल सकता, किसी को भी यदि हम पुर्ण समर्पण भाव से पाने की चाह रखते है  तो वह अवश्य ही मिल जाता है,
 
मुझे पुरा भरोसा है कि मै भी भगवान की खोज मे पुर्ण समर्पित भाव से लग गया हुँ और पुर्ण मन से अभी चिंतन जारी है कि ये दिव्य दृष्टि किस प्रकार प्राप्त करे या ऐसा कौनसा गुरू मिलेगा जो मुझे दिव्य दृष्टि दे दे,मै अभी चिंतन मे ही हुँ, कि मै किसके प्रति समर्पण करू, कौन मेरा भ्रम मिटायेगा और ऐसा कौन होगा जो मुझे प्रभू के दर्शन करवायेगा,

 जब कभी भगवान मिल जाये तो उन्हे देखने की क्षमता तो हो, अब भगवान को खोजने ही निकल गये है तो मुझे लगता है यदि है तो मिलेंगे जरूर...... आप पढते  रहे जब प्रभु के दर्शन होंगे तो आप लोगो को भी मै ये लाभ जरूर दुंगा, आप लोगो को भी रास्ता बताता ही रहुंगा, लेकिन यह तो पक्का है कि घर बैठे तो भगवान मिलने वाले नही है अपने आपको सक्षम बनाने के लिये तपाना तो पडेगा आप भी तपस्या करे और मै भी करता हुँ…. < 

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Thursday 9 June 2016

कर्मफल मिलता है ...!

भगवान को देखने की ललक ने कुछ परिवर्तन करने के लिये बाध्य कर दिया है,मै रोज यह सोचता हुँ कि भगवान को खोजने की चाह मे यह भी जानना जरूरी है कि खुद को तो जान लिया है क्या ? जब मन मे यह बात आई तो भगवान को खोजने की जगह खुद को खोजने का मन करने लगा मै ने बहुत विचार किया और  मै अपने आपको खोजने की प्रक्रिया मे लग गया,

जब खुद केअंदर झांका तो हजारो कलमश भरे पडे है ऐसा लगा, हम दुसरे लोगो की बुराईया करते रहते है दुसरे लोगो के अवगुणो को देखकर उन्हे उलाहना देते रहते है लेकिन कभी यह नही सोचते कि- मै कैसा हुँ मेरे अंदर भी ये बुराईया भरी पडी है मै यह सोचता हुँ कि मै  दुनियाँ का सबसे अच्छा इंसान हुँ और बाकी सभी लोग बुरे है लेकिन जब अंत समय आता है तो सब हिसाब होता है कैसा भी कर्म करो उसका वैसा ही फल मिलता है जब मै यह विचार करता हुँ कि किये गये कर्मो का फल अवश्य ही मिलता है तो मेरी रूह कांप जाती है

 गुरूदेव को जब आभास हो गया कि अंत समय आ गया तोउन्होने मुझे कहा- बेटा ! अब अंत समय आ गया है मेरे द्वारा किये गये सभी पापो का भुगतान करने का समय भी आ गया है वेदप्रकाश ! मैने मेरे जीवन मे दो वर्ष तक बहुत पाप किये है अब दो बरस तक इन पापो को भोगना ही पडेगा और दो वर्ष बाद मुक्ति हो जायेगी मै अब बस दो बरस और जीवूंगा ,ये बात उन्होने मुझे  9 अगस्त 2004 मे कही थी उस वक्त गुरूदेव का पैर फिसलने से पैर फ्रेक्चर हो गया था,इस घटना के ठीक दो साल बाद 23 अगस्त 2006 को गुरूदेव देवलोक चले गये, इस समयावधि मे उनको भयानक व्याधि ने घैर लिया था,पैरो मे फफोले हो गये थे, हम सब उनकी बहुत सेवा करते थे तब वे कहते थे -ये मेरी पुन्यो का फल है और जो कष्ट मै भोग रहा हुँ वह मेरे किये गये पापो का फल है

जब मै  यह विचार करता हुँ कि जब कर्मो का फल यही मिल जाता है तो यह स्वर्ग नर्क क्या है ? इनका क्या महत्व है सब कुछ यही है इसी धरती पर सब हिसाब हो जाता है, जब हमअपने आप को अंदर से झांकते है  तो लगता है घोर पापो का गौदाम भरा है, मनुष्य जितना अपने को खुद जानता है उतना उसे कोई दुसरा नही जान पाता, अपना मुल्यांकन खुद ही समय रहते ही कर लेना चाहिये वरना कर्मफल तो मिलना निश्चित है,

मेरा रोज  बिमार लोगो से ही पाला पड्ता है और उनमे से जो वृद्ध होते है वे सब अपनी अपनी गाथाये गाते है कि मैने ये पाप किया था उसका फल मुझे मिल रहा है "पुर्व जन्म कृतपापम व्याधि रूपेण बाधते " पुर्व जन्म मे किये गये पापो की सजा व्याधि के रूप मे आती है,अब पुर्व जन्म क्या है हम आज जो जन्म यानी जीवन भोग रहे है इसी जन्म का पहले का समय  ही पुर्वजन्म कहलाता है आज हम जो कर्म कर रहे है उस कर्म का फल हमे ठीक पंद्रह साल बाद मिल जाता है यदि हम अच्छे कर्म करते है तो अच्छा फल और बुरे कर्म करते है तो बुरा फल मिल ही जाता है, अब विचार तो मुझे और आपको करनाहै कि क्या करे जिससे फल अच्छा मिले वरना कर्म फल तो मिलता ही है...! 

Thursday 2 June 2016

अभी भटक रहा हुँ..

Abhi Bhatak Raha Hu...

         आज जब सुबह सुबह ही मन मे एक विचार आया कि मै क्यो किस लिये भटक रहा हुँ जबकि मेरे पास सब कुछ है जब तक खुद का ज्ञान नही होता तब तक ही भटकाव है खुद को जान जाने के बाद भटकाव बंद हो जाता है कैसे जाने खुद को, कौन बतायेगा खुद की जानकारी,

         मै ने ऐसा सुना है कि प्रत्येक मनुष्य के पास एक ऐसी विशेष बात होती है जो केवल उसी के पास होती है वह युनीक होती है दुसरे के पास वह नही होती है मेरे पास कोनसी चीज है जो मेरे ही पास ही है जब मुझे इस बात की जानकारी हो जायेगी तो मै उस काम को बहुत ही मन से करने लग जाउंगा, कहते है जिस काम मे सबसे ज्यादा मन लगे वही खास बात है जो आपको आगे ले जाती है, अब समझ मे नही आता कि किसी किसी को तो शराब सेवन करने मे ही मजा आता है, किसी किसी को लोगो की चुगली करने मे ही मजा आता है तो क्या भगवान ने उनको वही खास योग्यता दी है,


         मै रोज ध्यान लगा कर इसी बात पर चिंतन करता रहता हुँ कि मुझे ऐसी क्या योग्यता दी है जो सिर्फ मुझमे ही है, लेकिन अभी तक मुझे पता नही चला है, रामचरितमानस मे सुंदरकांड मे सीता मैया की खोज करते समय जब हनुमान जी चुपचाप बैठे थे तब जामवंतजी कहते है “राम काज लगी तव अवतारा” अर्थात हे हनुमानजी तुम्हारा जन्म राम जी के काम के लिये ही हुआ,

        एक बात और है कि रामजी ने अपनी निशानी सिर्फ हनुमानजी को ही दी थी तो क्या उन्हे पता था कि बस हनुमान जी ही खोजने मे सफल होंगे,

        ये भगवान जी की दी हुई जो अंगुठी है यह ही वह खास योग्यता है यही वह निशानी है जो सभी के पास होती है और उस कामको सिर्फ हम ही कर सकते है, दुसरा नही कर सकता बस पता बताने वाला मिल जाये या फिर खुद को ही पता लग जाये कि मेरे मे यह योग्यता है फिर चारो तरफ तरक्की ही तरक्की है,

        यह भटकाव है कभी कोई जामवंत जैसा गुरू मिलेगा और वह बतायेगा कि तेरा जन्म तो इस काम के लिये हुआ है, तब पता चलेगा कि मै इस काम का खास जानकार हुँ, अभी तो मै भटक ही रहा हुँ ...