Tuesday 6 December 2016

आत्मा का रिश्ता

मेरे मन में नित्य चिंतन मनन चलता रहता है। मैं रोजाना  ही भगवान का चिंतन करता हूँ लेकिन मुझे भगवान के बजाय मेरा ही चिंतन होने लगता है। मेरे बारे में ही विचार आने लगते है । मैं भगवान की खोज करने चला हूँ और मुझे लगता है मुझे मेरी ही जानकारी होती जा रही है । आज मेरे चिंतन में रिश्तों का सम्बन्ध क्या है । रिश्ते क्या है । रिश्तो का किससे सम्बन्ध है । ये विचार जैहन में गूंज रहे है ।

रिस्ते शरीर के भी होते है । आत्मा के भी होते है । और मन भी रिश्ते बनाता हैं। इन रिश्तों के भाव ,विचार और व्यवहार अलग अलग होते है।

ये जितने भी दिखने वाले रिश्ते है ये सभी रिश्ते सबसे अलग होते है । यह सब इस शरीर के रिश्ते है । यह शरीर ही अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए तरह तरह के रिश्ते बनाता है । मन और आत्मा रिश्ते बनाने में इतना महत्त्व नही देते है ।

जब आत्मा का रिश्ता होता है वह स्वभाविक होता है । उसमें छल प्रपंच नही होता । तुलसीदास जी लिखते है "छल प्रपंच मोहे नही भावा.." यह आत्मा ही तो है जो परमात्मा का अंश है। इसलिए परमात्मा के सामान आत्मा को भी छल प्रपंच पसंद नही है ।

मन के रिश्ते तो दोनों प्रकार से बन जाते है । यदि मन शरीर और इंद्रियो के वशीभूत होकर रिस्ते बनाता है । तो यह विकार युक्त होते है । स्वार्थ से पूर्ण होते है। काम,क्रोध,लोभ,मोह,से सने हुए होते है।

मन की चंचलता को वश में करके हमें इसे आत्मा से जोड़ दे तो यह एक योग बन जाता है । योग से हम आत्मा और मन की एक ज्योत जला सकते है । मन को बार बार आत्मा की ओर ले जाना ही अपना सुधार है ।

मैं रिस्ते बनाने के लिए मन को शरीर की बजाय आत्मा की ओर ले जाना चाहता हूँ। लेकिन रिस्ते बनाना और उन्हें निभाना, तथा मन को आत्मा की ओर ले जाना दोनों काम ही बहुत कठिन है ।

रिस्ते मतलब माता पिता , भाई बहिन, सखा सम्बन्धी, पति पत्नी, पुत्र पुत्री , ये सब कही ना कही कठिनता पैदा करते है । कई बार इन रिस्तो के बंधन में मनुष्य इतना भयंकर फंस जाता है कि क्या करे कुछ सूझता नहीं है । मेरे साथ कई बार ऐसा हो जाता है कि एक तरफ सगे सम्बन्धी होते है और दूसरी तरफ पत्नी और बच्चे, कई बार किसी लोभ में फंसा होता हूँ और रिस्तो को निभाने का जटिल काम आ जाता है । एक बार तो ऐसा हुआ क़ि माँ बीमार, एकदम बेहोशी की हालत और मुझे बाहर जाना , बहुत ही जरूरी, नोकरी का दायित्व और जिम्मेदारी का बोझ भी अब क्या करूँ , बहुत ही मुश्किल घडी भयंकर धर्म संकट में ये निर्णय लेना पड़ा क़ि माँ को थोड़ा होश आने के बाद, कुछ तबियत ठीक होने के बाद  में छोटे भाई के सहारे छोड़ कर जाना पड़ा । बहुत ही कठिन परिस्थिति हो जाती है जब रिस्ते निभाने की बारी आती है । कई बार तो कुछ लोग कहने लगते है कि तेरा माँ बाप के प्रति कर्तव्य नही है क्या ? मैं उन लोगो से कह देता हूं कि यार कर्तव्य ही तो निभा रहा हूँ । उन लोगो ने मुझे पढ़ाया और मै अब मेरे बच्चो को पढ़ा रहा हूँ। लेकिन यह नही चलता । ये गलत है । रिश्ता निभाना बहुत ही जरुरी है ।

यह शरीर भी इस संसार में स्त्री और पुरूष में बंटा हुआ है । जबकि शास्त्रो में आत्मा को ही पुरूष कहा गया है 'पुरः शरीरे शेती पुरुषः' जो इस नगर रूपी शरीर में रहती है वह पुरुष(आत्मा) है । स्त्री और पुरुष में यह एक ही आत्मा रहती है फिर भी लोग यह कहते रहते है कि - "बेटे से ज्यादा बेटियां रिस्ते निभाती है ।" लेकिन यह सब मन का वहम है। रिस्ते निभाना मन और आत्मा का काम है यह शरीर तो रिस्तो को लाभ के लिए  ही देखता है । जब लाभ ख़त्म तो रिस्ते भी ख़त्म । जो माँ बचपन में बहुत प्यारी लगती वह बूढ़ी होने पर उतनी प्यारी नही लगती । जो पुत्र सही मार्ग पर चले और अच्छी कमाई करता हो और आर्थिक सहायता भी करता हो , वो माँ को जितना प्यारा लगता है । उतना  प्यारा मदकमाऊ और बिगड़ैल बच्चा प्यारा नही होता है। रिस्तो में दरार आते कई बार देखा गया है ।

ये सब शरीर के रिस्ते है । आत्मा का रिश्ता हमेशा के लिए होता है । उस रिस्ते में कोई दिखावा ,कोई छल प्रपंच नही होता । वह रिस्ता जब मन आत्मा से मिल जाता है तब बनता है और फिर रिस्ता निभता ही चला जाता है । सब कर्तव्यों का पालन होता ही जाता है । जैसे राधा का श्याम से मीरा का घनश्याम से । मेरा आप लोगो से ...... आत्मा का रिश्ता ।

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